हम ही सादादिल है या फिर ज़माना चालाक है !
रहबर बन के लुटता है ये हर इक बार मुझे !!
में करू तो करू आखिर किस तरह दगा उससे !
हर शय में दिखे है वो जल्वागार मुझे !!
मुस्तकबिल का डर चैन से सोने नहीं देता !
माज़ी कि परछाईया रुलाये है जार जार मुझे !!
दर्द का मेरे तू भले यकी कर न कर ,लेकिन !
झूठी तसल्ली को जता जा थोडा सा प्यार मुझे !!
बर्के- फ़ना से है रंजिश अपनी पुरानी" आजाद " !
बनाया जब भी आशियाँ,किया इसने खाकसार मुझे !!
आजाद देहलवी ( २९.दिसम्बर २०१०)
शब्दार्थ :
रहबर : मार्गदर्शक
मुस्तकबिल : भविष्य
माज़ी : अतीत
बर्के फ़ना : नष्ट कर देने वाली बिजली
lonelyplanet
Thursday 30 December 2010
Sunday 26 December 2010
वतन से दूर सरज़मीने गैर की पनाहों में !
सवरती है ज़िन्दगी रोज़ नई परिभाषाओ में !!
अपने अख़लाक़ को बचा कर चल सको बड़ी बात है !
कदम कदम पर फैली हुई है फिसलन राहों में !!
वही ज़मी ,वही पर्वत , समंदर का किनारा वही !
मिट्टी की वो सोंधी खुशबू नहीं मगर इन हवाओ में !!
बाज़ार-ऐ-हुस्न में है जवानी खुली क़िताब की तरह !
वो शोंखी, नज़ाकत वो शर्मो हया कहा इन अदाओ में !!
शहर की इन तंग गलियों में दम घुटता है "आजाद" !
आओ कि अब लौट चले गावों की उन खुली फिज़ाओ में !!
(४.नवम्बर,२०११)
सवरती है ज़िन्दगी रोज़ नई परिभाषाओ में !!
अपने अख़लाक़ को बचा कर चल सको बड़ी बात है !
कदम कदम पर फैली हुई है फिसलन राहों में !!
वही ज़मी ,वही पर्वत , समंदर का किनारा वही !
मिट्टी की वो सोंधी खुशबू नहीं मगर इन हवाओ में !!
बाज़ार-ऐ-हुस्न में है जवानी खुली क़िताब की तरह !
वो शोंखी, नज़ाकत वो शर्मो हया कहा इन अदाओ में !!
शहर की इन तंग गलियों में दम घुटता है "आजाद" !
आओ कि अब लौट चले गावों की उन खुली फिज़ाओ में !!
(४.नवम्बर,२०११)
Friday 10 September 2010
Thursday 15 July 2010
नियति
कल तक जो दृड़ वटवृक्ष सा खड़ा था
आज वही टुटा हुआ निश्चेष्ट पड़ा था
कान्तिविहीन चेहरे पे उसके
झुर्रियाँ उभर आई थी
धंसी - पीली पड़ चुकी आँखों में
लक्षित महाकाल की परछाई थी
उनके अनुसार महाप्रयाण से अभी वो अनजान है
मगर जाने क्यू लगा सत्य का उसे कही न कही भान है
कुछ ही दिन हुए उसके तने से लिपटी
हरी भरी वो एक लता सी खड़ी थी
फिर वही एक रोज़ अचानक
भरभरा कर गिर पड़ी थी
जाने कोई दीमक सी
उस तने में घर कर गयी थी
अन्दर ही अन्दर जो उसे
खोखला भर कर गयी थी
उसके हेतु कुछ न कर पाने का
दुःख सभी को बड़ा था
पर उस महाकाल के आगे कौन बड़ा था
सत्य यही जान वो मौन प्रतीक्षारत पड़ा था
कल तक जो वटवृक्ष की भांति खड़ा था
(दिसम्बर १९९५)
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