Thursday 15 July 2010
नियति
कल तक जो दृड़ वटवृक्ष सा खड़ा था
आज वही टुटा हुआ निश्चेष्ट पड़ा था
कान्तिविहीन चेहरे पे उसके
झुर्रियाँ उभर आई थी
धंसी - पीली पड़ चुकी आँखों में
लक्षित महाकाल की परछाई थी
उनके अनुसार महाप्रयाण से अभी वो अनजान है
मगर जाने क्यू लगा सत्य का उसे कही न कही भान है
कुछ ही दिन हुए उसके तने से लिपटी
हरी भरी वो एक लता सी खड़ी थी
फिर वही एक रोज़ अचानक
भरभरा कर गिर पड़ी थी
जाने कोई दीमक सी
उस तने में घर कर गयी थी
अन्दर ही अन्दर जो उसे
खोखला भर कर गयी थी
उसके हेतु कुछ न कर पाने का
दुःख सभी को बड़ा था
पर उस महाकाल के आगे कौन बड़ा था
सत्य यही जान वो मौन प्रतीक्षारत पड़ा था
कल तक जो वटवृक्ष की भांति खड़ा था
(दिसम्बर १९९५)
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bahut khoob...shabdo ka chayan or pakad lajawab hai...keep it up!!
ReplyDeletethank u monika.
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