हम ही सादादिल है या फिर ज़माना चालाक है !
रहबर बन के लुटता है ये हर इक बार मुझे !!
में करू तो करू आखिर किस तरह दगा उससे !
हर शय में दिखे है वो जल्वागार मुझे !!
मुस्तकबिल का डर चैन से सोने नहीं देता !
माज़ी कि परछाईया रुलाये है जार जार मुझे !!
दर्द का मेरे तू भले यकी कर न कर ,लेकिन !
झूठी तसल्ली को जता जा थोडा सा प्यार मुझे !!
बर्के- फ़ना से है रंजिश अपनी पुरानी" आजाद " !
बनाया जब भी आशियाँ,किया इसने खाकसार मुझे !!
आजाद देहलवी ( २९.दिसम्बर २०१०)
शब्दार्थ :
रहबर : मार्गदर्शक
मुस्तकबिल : भविष्य
माज़ी : अतीत
बर्के फ़ना : नष्ट कर देने वाली बिजली
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