Thursday 30 December 2010

हम ही सादादिल है या फिर ज़माना चालाक है !
रहबर बन के लुटता  है ये  हर इक  बार मुझे !!
में करू तो करू आखिर किस तरह दगा उससे !
हर शय  में  दिखे   है  वो   जल्वागार  मुझे !!
मुस्तकबिल का डर चैन से सोने नहीं देता !
माज़ी कि परछाईया रुलाये है जार जार मुझे !! 
दर्द का मेरे तू भले  यकी  कर न कर ,लेकिन !
झूठी तसल्ली को जता जा थोडा सा प्यार मुझे !! 
बर्के- फ़ना से है रंजिश अपनी पुरानी" आजाद " !
बनाया जब भी आशियाँ,किया इसने खाकसार मुझे !! 
                                              आजाद देहलवी  ( २९.दिसम्बर २०१०)
शब्दार्थ :
रहबर : मार्गदर्शक
मुस्तकबिल : भविष्य
माज़ी : अतीत
बर्के फ़ना : नष्ट कर देने वाली बिजली 

No comments:

Post a Comment