Sunday 26 December 2010

वतन से दूर सरज़मीने गैर की पनाहों में !
सवरती है ज़िन्दगी रोज़ नई परिभाषाओ में !!
अपने अख़लाक़ को बचा कर चल सको बड़ी बात है !
कदम कदम पर फैली हुई है फिसलन राहों में !!
वही ज़मी ,वही पर्वत , समंदर का किनारा वही !
मिट्टी की वो सोंधी खुशबू नहीं मगर इन हवाओ में !!
बाज़ार-ऐ-हुस्न में है जवानी खुली क़िताब की तरह !
वो शोंखी, नज़ाकत वो शर्मो हया कहा इन अदाओ में !!
शहर की इन तंग गलियों में दम घुटता है "आजाद" !
आओ कि अब लौट चले गावों की उन खुली फिज़ाओ में !!
                                           (४.नवम्बर,२०११)

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